उसका ख़त
जो शुरू होता था 'प्यार' से
प्यार जो जगाता था अपनापन
और जोड़ देता था मुझे सीधे मेरे यार से
फ़िर शुरू होता था सिलसिला
उसकी नाराज़गी के दौर का
जहां होती थी सिर्फ नाराज़गी
कड़ुवाहट का अंश कभी न मिला
वो ख़त
ख़त्म होता था एक कशिश के साथ
और दिलाता था मुझे एहसास
कि लिखना है उसे एक ख़त मीठा सा
आहिस्ता-आहिस्ता बन गया वो प्यार
महज़ एक सामान्य सा अभिवादन
और अंत एक बेजान रस्म अदायगी
फ़िर एक दिन अचानक
शब्द और शायद रिश्ते भी गए ठहर
बदल गया मिजाज़, पूरा का पूरा आलम
वो मेरा यार, हो गया मुझसे ग़ैर
आज मिला उसका ख़त
शुरुआत से ही 'कैसे हो' का प्रश्न दागता
प्रश्न या अभिवादन ? क्या कहें
था इसमें मेरे यार का दिल भी झांकता
जहां सिमट गया था दायरा मेरे वास्ते
भटक गए थे मेरी ओर आने के हर रास्ते
और अंत में एकदम ख़ाली
मेरी ही तरह बिल्कुल एकाकी-तुम्हारी अनामिका
ऐसा क्यूं
हमारे रिश्तों को देकर प्यारा सा नाम
यूं आसमां से ज़मीं पर गिराया क्यूं
कोई तो सबब होगा
इस बात का, तुम्हारे अंदाज़ का
अब तो सिर्फ अंदाज़े पर ही टिकी है उम्मीद
किसी रोज़ बदलेगा वो यूं
पा सकूंगा मैं फ़िर वही शुरुआत
तुम्हारा ख़त प्यार भरा
अंत तक प्यार के साथ ।।